आध्यात्मिक जगत में २ सवाल हमेशा पूछे जाते है पहला मैं कोन हूँ और दूसरा सत्य क्या है उसका यथार्थ क्या है? आज हम सत्य क्या है इस प्रश्न पर थोड़ा मनन करेंगे।
सत्य क्या है, उसका यथार्थ क्या है यह प्रश्न निरंतर साधकों के समिप रहा है, इस प्रश्न से बहुत से साधक परेशान रहते हैं, उनका पूरा आध्यात्मिक जीवन इसी प्रश्न के आसपास घिरा हुआ रहता है। परंतु कभी कभी पूरा जीवन साधना करने के बाद भी इस प्रश्न का उत्तर उन्हें प्राप्त नहीं होता।
इसके पीछे एक कारण यह हो सकता है कि किसी भी आध्यात्मिक मार्ग पर सत्य क्या है , उसकी परिभाषा क्या है यह साधक को बताया नहीं जाता, केवल सत्य की प्राप्ति करना है इतना मात्र बताया जाता है, परंतु ज्ञान मार्ग ही ऐसा एक मार्ग है जहाँ पर सत्य क्या है और उसकी परिभाषा क्या है यह बताया जाता है।
ज्ञान मार्ग पर सत्य की परिभाषा कुछ इस तरह से की गयी है - ज्ञान मार्ग के अनुसार सत्य अनुभवों का वर्गीकरण है, एक संसारीक कथन है जो एक निश्चित ज्ञान के तरफ इशारा करता है।
ज्ञान मार्ग के अनुसार सत्य और असत्य अनुभवों का वर्गीकरण मात्र है, जो कि व्यक्तिनिष्ठ मानदंडो पर आधारित है। इसका अर्थ यह है कि आपका सत्य पूरी तरह आपके अनुभवों पर निर्भर है । जो आपका अनुभव है वही आपके लिए सत्य होगा।
सामान्य जीवन में सत्य क्या है यह जानने के लिए हम बहुत सारे मानदंडो की सहायता लेते है जैसे पुस्तकें, समाज , माता पिता, पाठशाला इत्यादि। यहीं मानदंडो के आधार पर हम सत्य और असत्य का वर्गीकरण करते है। परंतु ये मानदंड जीवन में कितने खरे उतरते है यह बताना आसान नहीं है, क्योंकि मानदंड व्यक्तिनिष्ठ हैं, जो मानदंड व्यक्ति के जीवन में सबसे ज़्यादा उपयुक्त होता है उसी मानदंड को वह अपनाता है।
परंतु यह सामान्य मानदंड जीवन के लिए कितने उपयोगी साबित हो रहे है इसका थोड़ा सा अनुमान हम समाज के तरफ देखकर लगा सकते है। ऊपर बतायें गए सारे मानदंड अज्ञान के कारण है, केवल मान्यता मात्र है , सामान्य जनता यही सारे मानदंडो का उपयोग करती है इसलिए आज पूरा का पूरा समाज अज्ञान में डूबा हुआ है, हर तरफ़ अज्ञान का काला बादल छाया हुआ है। सत्य वह होता है जो जीवन में शांति लाए, परंतु समाज में शांति का पूरी तरह से अभाव है।
तो सत्य के सही मानदंड क्या होने चाहियें ?
१) स्वानुभव - स्वतः किया अनुभव, सत्य का पहला और सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण मानदंड है स्वानुभव, अगर कोई अनुभव हमारा स्वयं का नहीं है तो हम उसका वर्गीकरण नहीं कर सकते वह हमारे लिए फिर सत्य भी नहीं और असत्य भी नहीं।
२) तार्किक - सत्य हमेशा तार्किक होना चाहिए।
३) पुनरावृत्ति - अगर किसी अनुभव की पुनरावृत्ति हो रही है तो वह सत्य के वर्गीकरण में आएगा, अगर उस अनुभव की पुनरावृत्ति नहीं हो रही है तो उसे हम सत्य नहीं बोल सकते जैसे उदा ; गुरुत्वाकर्षण शक्ति जिसकी हमेशा पुनरावृत्ति होती है।
४) अपरिवर्तनीय - सत्य का समय के पटल पर टिक जाना बहुत अनिवार्य है, अगर कोई अनुभव समय के साथ बदलता है तो वह सत्य नहीं हो सकता, अगर कोई अनुभव आज सत्य है कल असत्य होगा परसों वापस सत्य होगा तो वह मिथ्या है।
५) स्व प्रमाणित - सत्य हमेशा स्व प्रमाणित होना चाहिए
यह तो हुए सत्य के उचित मानदंड, अगर कोई भी अनुभव इन मानदंडो के अंतर्गत आता है तो उसे सत्य कहा जा सकता है।
अब हम अद्वैत का मानदंड क्या है उसके उपर एक बार नज़र डाल देते है, अद्वैत का सत्य को जानने का मानदंड बहुत ही सरल और सामान्य है ''परिवर्तन'' अद्वैत में जो अनुभव परिवर्तनशील है वह असत्य है, और जो अनुभव अपरिवर्तनशील है वो सत्य है। यह बात पड़कर आप थोड़े से विस्मित हुए होंगे, मैं भी हुआ था। परंतु अद्वैत का यही मानदंड है, हमारे अनुभव में ऐसा कोई भी अनुभव नहीं है जो अपरिवर्तनय है, परिवर्तन तो सारे अनुभवों का स्वभाव है, इसलिए अद्वैत के स्तर पर सारे अनुभव मिथ्या मात्र हैं। इसलिये अद्वैत के स्तर पर सत्य और असत्य कोई मायने नहीं रखता, जो है वह पूर्ण है।
फिर सत्य और असत्य का क्या फ़ायदा है / क्या उपयोग है ? सामान्य जीवन में सत्य और असत्य में भेद होना बहुत अनिवार्य है, सत्य-असत्य के भेद के कारण जीवन सहजता से चल पाता है। परंतु आध्यात्मिकता में सत्य क्या है यह इतना मायने नहीं रखता, साधकों को यह सत्य और असत्य के खेल से दूर ही रहना चाहिए।
अंत में हम यह पाते है कि सत्य केवल एक वर्गीकरण मात्र है, जो कि परिवर्तनशिल है, सापेक्षिक है और अर्थहीन है, और केवल एक सीमित संदर्भ में ही मायने रखता है।
साधू साधू आपका मनन ज्ञान उच्च कोटि का
जवाब देंहटाएं🙏🙏🙏
जो भी है सब गुरक्षेत्र की कृपा है, मेरा इसमें कुछ नहीं 🙏🏻🙏🏻🌸
हटाएंबहुत अच्छा लेख लिखा है शुभम जी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙏🏻🌸🍅
हटाएंबहुत सुंदर 🌷
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मुमताज़ जी 🙏🏻🌼
हटाएंबहुत सुन्दर लेख है शुभम। 🙏🙏❤
जवाब देंहटाएंधन्यवाद 🙏🏻🌸
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