सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

सुख, दुःख और आनंद

सुख और दुःख मनुष्य जीवन के दो बहुत बड़े आयाम हैं, संपूर्ण मनुष्य जीवन इन्हीं दो आयामों से घिरा रहता है। परंतु मनुष्य जीवन में और भी एक आयाम है जिसे कोई बिरला ही  छू पाता है, जो इन दोनों आयामों से परे है और वह है आनंद, तो चलिए आज इन्हीं तीन आयामों पर थोड़ा-सा मनन करते हैं।
 
सुख और दुःख को जानने से पहले हमें यह जानना आवश्यक है कि सुख और दुःख का मूल क्या है। अगर इस प्रश्न पर थोड़ा-सा मनन करेंगे तो यह जान पायेंगे कि सुख और दुःख का मूल इच्छाएं  हैं वासनाएं  हैं।
 
दुःख क्या है? दुःख एक तरह की चित्तवृत्ति है। जब कोई भी अनुभव चित्त की इच्छा के विपरीत होता है तो चित्त एक दंड के रूप में दुःख की उत्पत्ति करता है। इस वृत्ति को चित्त में नकारात्मक विचार, भावनाएँ, वाणी, कर्म आदि के रूप में अनुभव कर सकते है। इस अवस्था को दुःख की अवस्था कहा जाता है।
 
दुःख का स्रोत स्मृति है, जब भी कोई अनुभव चित्त की इच्छा के विपरीत होते हैं तो वह अनुभव स्मृत्ति में छप जाते हैं और अनुभवों  के साथ-साथ जो अन्य प्रतिक्रियाएँ चित्त में उठी हैं वह भी स्मृत्ति में छप जाती हैं। और ऐसे यह प्रकिया स्वयं को बार-बार दोहराती है।
 
दुःख पीड़ा नहीं है, पीड़ा नैसर्गिक है, जीवन के लिए आवश्यक है, पीड़ा के कारण विकास होता है। पीड़ा नैसर्गिक है पर दुःख मनोनिर्मित है। जीवन अनुभवों की शृंखला है, अनुभव होते रहते हैं, कुछ अनुभव ऐसे होते है जो पीड़ादायी होते हैं जो इस चित्त के विकास के लिए आवश्यक होते हैं। अगर जीवन में पीड़ा नहीं हो तो जीवन का विकास एक तरह से रुक जाएगा, जीवन नीरस हो जाएगा, वही अनुभव बार-बार होते रहेंगे। इसका एक सुंदर उदाहरण हमें गौतम बुद्ध के प्रारंभिक जीवन से मिलता है जब वह कुमार सिद्धार्थ थे,
 
उनके जीवन में कोई पीड़ा नहीं थी, कोई कष्ट नहीं थे, बाहर से सब कुछ  अच्छा था, परंतु उनका मन अंदर से बेचैन था, उनका जीवन नीरस-सा था, अगर वह उसी जीवन में फँसे पड़े रहते जो पीड़ाहीन था, तो वह आज गौतम बुद्ध ना कहलाते।
 
दुःख का मूल कारण अज्ञान है, स्वयं का मूल स्वरूप क्या है उसका अज्ञान है। जब व्यक्ति स्वयं को चित्त समझता है तो वह दुःख को भी स्वयं का मानता है। वो  यह नहीं देख पाता की यह   बस एक चित्तवृत्ति है, जो मेरे द्वारा अनुभव की जा रही है। जब व्यक्ति स्वयं में और चित्त में भेद नहीं कर पाता तो ये  वृत्ति पूरे चित्त पर हावी हो जाती है और इसी कारण वश व्यक्ति का पूरा जीवन ही दुःखमय हो जाता है।
 
दुःख के विपरीत है सुख, दुःख की तरह ही सुख भी एक चित्तवृत्ति है। जब कोई भी अनुभव चित्त की इच्छा के अनुसार होता है, उसकी इच्छा की पूर्ति करता है तो चित्त पुरस्कार के रूप में सुख की उत्पति करता है। यह एक तरह की मानसिक घटना है। इस वृत्ति को हम चित्त में सकारात्मक विचार, वाणी, कर्म, भावनाओं के रूप में अनुभव कर सकते हैं। जब कोई भी इच्छा की पूर्ति होती है तो सुख का अनुभव होता है, दुःख की तरह ही सुख के अनुभव स्मृत्ति में छप जाते है।
 
सुख इस शब्द का मूल अर्थ है अभाव, जब दुःख का अभाव होता है तब सुख की अवस्था होती है, जब इच्छा पूर्ति होने के बाद थोड़े समय के लिए इच्छा का अभाव होता है तब सुख की अवस्था रहती है। इसलिए सुख कुछ पाने के बाद नहीं मिल सकता, बल्कि सब कुछ जाने के बाद मिलता है। परंतु सुख जीवन का लक्ष्य नहीं है सुख तो केवल एक चित्तवृत्ति है जो आती जाती रहती है, जीवन का लक्ष्य है केवल अनुभव लेना। परंतु जब व्यक्ति सुख को लक्ष्य बना देता है तो वो वह नहीं करता जो जीवन के लिए आवश्यक है वो वह करता है जो उसे सुखदायी लगे।
 
सुख एक तरह की लत बन जाता है। व्यक्ति अधिक वासनाओं में लिप्त हो जाता है, सुख के लालच में वासनाओं का दास बन जाता है और सुख के लिए इच्छापूर्ति ही उसका परम लक्ष्य बन जाता है। परंतु वासनाएँ अनंत हैं सभी वासनाओं की पूर्ति करना संभव नहीं है और जो वासनाएँ पूर्ण नहीं होती वह दुःख का कारण बन जाती है। ऐसेही यह सुख-दुःख का चक्र पूरे जीवनभर खुदको दोहराता रहता है।
 
अबतक हमने यह जाना की सुख और दुःख दोनों अस्थायी है, चित्तवृत्ति मात्र है, परिवर्तनशील है इसलिए मिथ्या है। जब यह ज्ञान हो जाता है कि ना सुख मेरा है ना दुःख मेरा है, यह केवल चित्त के अनुभव मात्र है और मैं चित्त नहीं हूँ, मैं उस चित्त को अनुभव करने वाला अनुभवकर्ता हूँ तो परम शांति की अवस्था होती है।

यही आनंद की स्थिति  है जो की कोई  चित्तवृत्ति  नहीं है, परंतु मेरा स्वभाव मात्र है। मैं स्वयं आनंद हूँ, चैतन्य हूँ।
 
सुख दुःख का अभाव ही आनंद है, सभी इच्छाओं का अभाव आनंद है। ना इच्छाएं मेरी हैं ना उनके कारण जो सुख दुःख हैं वह मेरे हैं, यह जानकर उस ज्ञान में स्थित हो जाना ही परमानंद है। आनंद किसी घटना पर आधारित नहीं है, वह आने जाने वाली अवस्था नहीं है किसी व्यक्ति, संबंध वस्तु, अनुभव पर निर्भर नहीं है, वह स्वतंत्र है। वह कहीं नहीं जाता, आपने उसे कभी खोया ही नहीं है, जैसे काले बादलों की आड़ में सूर्य का प्रकाश छुप जाता है उसी तरह इन इच्छा रूपी बादलों की आड़ में आनंद थोड़े समय के लिए छुप जाता है।
 
इसलिए आनंद को कभी पाया नहीं जाता जो पहले से ही आपके पास है, जो स्वरूप है उसे कैसे पाओगे ? इसलिए यहाँ सारे प्रयास व्यर्थ हैं, निरर्थक हैं केवल और केवल समर्पण आवश्यक है और जो की केवल कृपा से ही संभव है।

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सटीक और सुन्दर लिखा है शुभम जी आपने । अनुभव कर्ता भाव में सुख दुख से परे आनंद है ।

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  2. बहुत ही अच्छी तरह से, बहुत ही सटीक लेख लिखा
    आपके सार्थक प्रयाश को नमन है 🙏🙏

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  3. बहुत सुंदर लेख है शुभम। 👌

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  4. बहुत अच्छी तरह से आपने समझाया है। बहुत सुन्दर वर्णन है।

    🙏🙏

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