शनिवार, 19 मार्च 2022

परिवर्तन के पार मेरा सार

परिवर्तन प्रकृति का  एक मूल गुण है जिसे हम हर क्षण अनुभव करते है, संपूर्ण सृष्टि के कण कण में परिवर्तन है, तो क्या है यह परिवर्तन? क्या है जो अपरिवर्तनीय है? कैसे परिवर्तन के नियम के ऊपर उठा जा सकता है? इन्ही सब प्रश्नो पर हम आज मनन करेंगे।

परिवर्तन को समझने के लिए हमें नाद को समझना आवश्यक है। नाद एक सबसे सरल मौलिक परिवर्तन मात्र है जो दो स्थितियों में पाया जाता है, परिवर्तन के लिए दो स्थितियों का होना आवश्यक है, परिवर्तन एक स्थिति में कभी पाया नहीं जाता, जब नाद एक स्थिति से दूसरे स्थिति में परिवर्तित हो जाता है या ये कहें की उसमें बदलाव आता है तो उसे हम परिवर्तन कहते हैं। 

सरल नाद की जब पुनर्वृत्ति होती है तो हम उसे नादरचना कहते है, नाद हमेशा सरलता से जटिलता की और अग्रसर होता है। नादरचनाएँ नियमबद्ध होती हैं, अगर नाद रचनायें नियमबद्ध नहीं होंगी तो उसकी चित्त में स्मृति नहीं बनेगी। द्वैत के स्तर पर हम यह कहते हैं की सारे अनुभवों का कारण नादरचना है, और सारे अनुभव हमें इंद्रियो के माध्यम से होते हैं, इंद्रिया जब इन नादरचनाओं के साथ प्रतिक्रिया करती हैं तब हमें अनुभव होते हैं। जैसा हमने उपर जाना अगर नादरचना नियमबद्ध नहीं होंगी तो उन नादरचनाओं की स्मृति नहीं बनेगी और उनकी इंद्रियो के साथ प्रतिक्रिया भी नहीं होगी तो उनका अनुभव भी नहीं होगा। इसलिए सारे अनुभव भी नियमबद्ध हैं और हमें जो भी अनुभव होते हैं वह केवल परिवर्तन मात्र के होते हैं। 

संपूर्ण जीवन एक अनुभवों की शृंखला मात्र है, जीवन में अनुभवों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पाया जाता है। और जो भी अनुभव है वह सब नादबद्ध है, उनके मूल में परिवर्तन मात्र है, सारे अनुभव परिवर्तनशील मात्र हैं। यही परिवर्तन इस जीवन का अविभाज्य घटक है, हम चारों दिशाओं से केवल बदलाव से घिरे हुएँ हैं। यदि ऐसा है तो क्यों मनुष्य परिवर्तन का हमेशा विरोध करता आया है?  

अज्ञान के कारण, अज्ञान ही मनुष्यता का सबसे बड़ा बंधन है, अज्ञान के कारण ही वो ये नहीं देख पाता की ये संसार ये  जगत नित्य परिवर्तनशील है, ये प्रकृति गतिशील है, सारे अनुभव गतिशील है। संसार में कोई भी वस्तु एक जगह स्थिर नहीं है सबकुछ बदल रहा है। परिवर्तन ही है जिसके कारण सुख  दुःख में बदल जाता है, और दुःख की  स्थिति हमेशा बनी नहीं रहती है। परिवर्तन के कारण ही हमें संसार में द्वैत देखने को मिलता है, संसार में इतनी विविधता का कारण भी परिवर्तन ही है।

हम परिवर्तन को बड़ी ही नकारात्मक दृष्टि रखते हैं। जैसे एक उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति जो हमारे निकट होता है उसके स्वभाव में कुछ कारण बदलाव आता है तो हम बड़े दुखी होते है उसे कोसते हैं, उसको बहुत कुछ बोल देते हैं, उसके परिवर्तन का विरोध करते हैं, क्या ये केवल अज्ञान नहीं है? हम उसका विरोध केवल इसलिए करते हैं क्योंकि वो व्यक्ति हमसे ऊँची जीवन की किसी संभावना को प्राप्त हुआ है और हम वहीं के वहीं ठहरे हैं। 

विकास और पतन  दोनो के मूल में भी केवल और केवल परिवर्तन है, अगर परिवर्तन नहीं होगा तो यह संसार रुक सा जाएगा। जिस समय हम परिवर्तन को नकारते हैं हम जीवन की विवध संभावनाओं को चूक जाते हैं, परिवर्तन को नकारना यानी अनुभव, प्रकृति को नकारना है। परिवर्तन नहीं होगा तो यह जीवन भी नीरस होगा, जीवन फिर जीवन नहीं रहेगा, सारे रंग उड़कर बेरंग हो जाएगा, एक ही जैसे अनुभव होते रहेंगे उनका फिर कोई महत्व नहीं होगा।  

इतिहास में हमें ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने परिवर्तन को नकारा है और उनका क्या हश्र हुआ है यह आप जानते ही होंगे। आपका अपरोक्ष अनुभव भी यही कहता है कि जो रुक जाता है वह मिट्टी में मिल जाता है। चित्त का नियम ही  यही है की वह सदैव परिवर्तनशील है। 

अबतक हमने यह जाना की जीवन में ऐसा  कुछ भी नहीं है जो परिवर्तनशील ना हो, तो शास्त्रों में हमेशा अपरिवर्तनशीलता की बातें  क्यों की गयी हैं? क्या है जो नहीं बदलता जो अपरिवर्तनशील है? वह स्वयं तुम हो। तुम यह पाओगे की सब कुछ  बदल रहा है परंतु तुम्हारा स्वयं का तत्व नहीं बदल रहा है। तुम वही हो जैसे पहले थे। तुम इस परिवर्तन इस बदलाव के साक्षी हो, दृष्टा मात्र हो।

तुम अनुभवकर्ता हो, यही है जो अपरिवर्तनीय है। अनुभवों में परिवर्तन है अनुभवकर्ता में नहीं है, परिवर्तन का अनुभव करने में किसी ना किसी को अपरिवर्तनीय होना आवश्यक है, अगर परिवर्तन का अनुभव करने वाला ही बदल गया तो वह स्वयं अनुभव हो जाएगा और अनुभवकर्ता वापस एक कदम पीछे हट जायेगा। इसलिए अनुभवकर्ता कभी नहीं बदलता वही एकमात्र है जो परिवर्तन से परे है।

इसलिए अनुभवकर्ता को तुम अगर संसार में खोजने जाओगे तो बड़े असफल होकर ख़ाली हाथ लोटोगे, उसे बाहर खोजने के सारे प्रयास निरर्थक हैं। वो वही है जहाँ तुम हो। जब यह ज्ञान हो जाता है की मैं स्वयं ही अनुभवकर्ता हूँ, और मैं पहले से ही इस परिवर्तन के नियम से उपर हूँ तो अपने आप स्वाभाविक आनंद प्राप्त हो जाता है। फिर यह सारा परिवर्तन का खेल एक लीला बन जाता है । खेलो अब जितना खेलना है उतना अब किसने रोका है?


18 टिप्‍पणियां:

  1. अति सुन्दर वर्णन किया है शुभम जी आपने विस्तार में लिखा है । धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुंदर लेख आपके सार्थक प्रयास को नमन है 🙏🙏👍👍 धन्यवाद🌺🌺🙏🙏
    आपके लेख को पढ आनंद आया 🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. Sunder varnan kiya hai parivartan ka aur unke pariprekshya me अनुभवकर्ता ka bhi

    जवाब देंहटाएं
  4. बहोत अच्छा लेख है। आपका मनन बहोत गहरा है। धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  5. Very good. Elaborated nicely and clear concept. Enjoyable and informative . Loved this blog. 🙏🙏🌺🌺

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत हि अच्छा विचार लिखा है|

    जवाब देंहटाएं
  7. परिवर्तन को बहुत विस्तार और सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया आपने शुभम 🙏🌺

    जवाब देंहटाएं

परिवर्तन के पार मेरा सार

परिवर्तन प्रकृति का  एक मूल गुण है जिसे हम हर क्षण अनुभव करते है, संपूर्ण सृष्टि के कण कण में परिवर्तन है, तो क्या है यह परिवर्तन? क्या है ज...