प्रेम !! कितना अद्भुत शब्द है यह। हमें बचपन से यह सीख मिली है की सबसे प्रेम करो, सबके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करें, हमें यह तो बताया गया है की प्रेम करो परंतु वास्तव में प्रेम क्या है ,क्या यह कभी हमें बताया गया है ?
सामान्यतः हम प्रेम को किसी संबंध से जोड़ देते हैं, या दो व्यक्तियों के बीच में जो भाव का संबंध होता है उसे हम प्रेम का नाम देते हैं। उदाहरणतः पति पत्नी के बीच का प्रेम , माता और पिता का अपने बच्चों से प्रेम , या कभी कभी हमें कोई वस्तु पसंद आती है तो हम यह कह देते हैं की मेरा उस वस्तु पर बहुत प्रेम है।
क्या हम संबंधो को प्रेम कह सकते है ? क्या प्रेम केवल संबंधो तक ही सीमित है ? अगर इन सवालों पर हम थोड़ा मनन करेंगे तो हम यह जान सकते हैं की जिसे हम प्रेम कहते हैं वो मोह से बड़कर कुछ नहीं है, केवल एक मान्यता मात्र है ।
तो क्या है प्रेम का वास्तविक अर्थ ? क्या है वह प्रेम जिसपर गुरूजनों और ज्ञानियों से इतना कुछ बोला है, आइये उसे जानने का थोड़ा प्रयास करते हैं।
ज्ञान के दृष्टि से देखें तो प्रेम मुक्ति का द्वार है , और जिसे हम प्रेम समझते हैं वो मोह और अज्ञान का फल है। प्रेम मुक्ति है तो मोह बंधन है , प्रेम फूल है तो मोह कांटा है ।
यदि किसी संबंध में कोई चाह है , कोई मांग है , यदि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से कुछ पाने की आशा करता है तो वहाँ प्रेम होने की संभावना नहीं है, वह केवल मोह के धागे से बंधा हुआ एक संबंध मात्र है जो मांग पूर्ण होने पर टूट जाता है ।
वास्तव में जहां दो व्यक्ति हैं वहाँ कभी प्रेम नहीं हो सकता , बल्कि व्यक्ति का नाश ही एक सच्चे प्रेम का आरंभ है । जब कोई साधक आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान से यह जान लेता है की वह व्यक्ति नहीं है , केवल यह जड़ देह मात्र नहीं है , परंतु स्वयं चैतन्य स्वरूप ब्रह्मं / अस्तित्व है तो वहां केवल प्रेम ही बच जाता है ।
जब अज्ञान का नाश होता है और चेतना के प्रकाश से सब कुछ प्रकाशित हो जाता है तब साधक यह जान पाता है की दो नहीं हैं केवल अद्वैत है जहां समर्पण आता है वही प्रेम है । सारे मनुष्यों, जगत, प्राणियों में स्वयं को देखना यही प्रेम है। और जब सब कुछ एक ही है फिर कैसा मोह और कैसा बंधन इसलिये सारे संबंधो से परे जाना ही प्रेम है । इसलिए एक सच्चा ज्ञानी ही एक सच्चा प्रेमी हो सकता है।
अंत में कबीर जी भी यह केहते है -
प्रेम प्रेम कोई सब कहे , प्रेम ना बुझे कोय ।
आठ पहर भीगा रहे , प्रेम कहाए सोय ।।
इस दोहे का अर्थ यह है की प्रेम कोई भावना नहीं हैं , किसी लालच और तृष्णा से भी प्रेरित नहीं है। प्रेम बदले में कुछ चाहता नहीं है , प्रेम प्रेम तो सब कहते है परंतु वास्तव में उसका अर्थ कोई नहीं जानता , प्रेम तो वही है जो स्वयं की स्वयं से पहचान कराये ।
हे प्रेमी हे ज्ञानी आपको नमन है 🌺🙏🙏
जवाब देंहटाएंआपको भी मेरा नमन 🙏🏻🍅
हटाएंअति सुन्दर .. सारे प्राणियों में जगत में स्वयं को चैतन्य को अनुभव कर्ता को देखना यही प्रेम का प्राकट्य है यही प्रेम का अनुनाद है .. धन्यवाद शुभम जी
जवाब देंहटाएंआपका भी बहुत बहुत धन्यवाद 🙏🏻🙏🏻🍅🌸
हटाएंआपको और गुरु जी को बहुत-बहुत प्रेम♥️🍅🍅🍅♥️
जवाब देंहटाएंआपको भी बहुत बहुत प्रेम 🙏🏻🌸🍅
हटाएंप्रेम का बहुत सुन्दर वर्णन किया। धन्यवाद शुभम!🙏😊🌹❤🍅
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